Saturday, December 1, 2012

गौरवशाली इतिहास का साक्षी है सिरोही

सिरोही। समाचार। रमेश सुथार। राजस्थान के दक्षिण पश्चिम में स्थित सिरोही राज्य क्षैत्रफल में अत्यंत छोटा जिला होते हुए अपने आंचल में गौरवशाली इतिहास समेटे हुए है। विक्रम संवत 1482 में राव सहस्त्रमल (शेषमल) ने अपने राज्य की राजधानी के रूप में सिरोही की स्थापना की थी।चौहान कुल कल्पद्रुम के अनुचार राव सहस्त्रमल आखेट (शिकार) के लिए अक्षय द्वितीया के दिन निकले थे कि अचानक खरगोश की ओर से शिकारी पर लपकने का परिदृश्य देखकर अचंभित रह गये। वर्तमान महलों के स्थान पर घोर जंगल था,जंहा पर इस तरह के दृश्य से प्रभावित होकर उन्होने उसी  समय राजधानी बनाने का आदेश दिया। जिस पत्थर पर खडे होकर खरगोश नें शिकारी का सामना किया था ।वहीं प्रथम नींव का पत्थर बना। इतिहास साक्षी है कि सन् 1206 में माणिकयराय ने जालोर से पृथक होकर बरलुट में अपने राज्य की स्थापना की। सन् 1250 महाराव विजयराज के काल में वाडेली एवं सन् 1307 में चंद्रावती राज्य की राजधानी रहे। सन् 1311 में राव लुंबा ने परमार राजाहुण को हराकर आबू विजय कर राजधानी बनाई। विक्रम संवत 1462 में राव शिवभाण (शोभा) ने खोबा (पुरानी सिरोही) में शिवपुरी नाम से नगर बसाकर राजधानी बनाया, जो 20 वर्ष तक रहीं।इसके बाद राव सहस्त्रमल ने शुभ शकुन देखकर वर्तमान सिरोही की स्थापना अक्षय द्वितीया के दिन की जो संवत 1482 में की जो स्वतंत्रता प्राप्ति तक आज से 2059 वर्ष पहले अबुंर्दाचल के तत्कालीन परमार राजा पाण्डु ने विक्रम संवत सात में वैजनाथ महादेव के नाम से इस प्राचीन शिव मंदिर की स्थापना की।
पारंपरिक रीति रिवाजों का प्रतीक है सारणेश्वर मेला
कालांतर में ईस्वी सन् 1298 में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने गुजरात कें सोलंकी साम्राज्य को ध्वस्त करने के उपरान्त सिद्धपुर स्थित रूद्रमान शिवालय टुकड़े टुकड़े कर अलाउद्दीन की सेना उनके सेनापति मलिक काफुर के नेतृत्व में गाय के खून से लथपथ चमडे में बांधकर घसीटते हुए वर्तमान सिरणवा के रास्ते दिल्ली की ओर रवाना हुई। इतिहासकार गौरीशंकर औझा के अनुसार सिरोही के तत्कालीन नरेश महाराव विजयराज की ओर से इसका विरोध करने पर दोनों के बीच युद्ध हुआ। वर्तमान सिरोही राज्य एवं तत्कालीन अबुंर्दाचल के सभी धर्म भक्तों नें राज्य का साथ दिया।रेबारी समाज नें गोफण से सिरणवा पर्वत पर मोर्चा संभाला तथा शाही  सेना पर गोफण से पत्थर बरसाए।शिव की कृपा से शाही सेना को खदेडकर शिवलिंग को मुक्त करा लिया गया और सारणेश्वर में स्थापित कराया गया।यह सिरणवा की तहलटी में स्थित होने से सिरणेश्वर महादेव एवं अपभ्रंश वश कालांतर में सारणेश्वर महादेव के नाम से जिले के आराध्यदेव के रूप में पूजे जाते है। शिवलिंग स्थापना में रेबारी समाज के अर्पूव सहयोग की याद में तत्कालीन महाराव विजयराज ने एक दिन के मंदिर मेले का अधिकारी रेबारी समाज को देकर गौरवान्वित किया। यह परम्परा आज भी कायम है।उल्लेखनीय है कि शिव मंदिर का नामकरण सिरणवा पर्वत के नाम के साथ ही युद्ध   का पर्याय धार के द्वारा भी माना गया है। संस्कृत में धार को छार भी कहते है। अपभ्रंश के कारण इस शब्द की उत्पति हुई। मंदिर में रूद्रमान शिवलिंग स्थापना में समस्त वर्णों का भी अभूतपूर्व योगदान रहा। चौहान कुल कल्पद्रुम में लल्लूभाई देसाई एवं तवारीख राज सिरोही में ब्रह्माणों के त्याग और बलिदान का उल्लेख है कि उनके शवों से सवा मन जनेऊ उतरी थी। महाराव विजयराज के अद्भुत शौर्य धार्मिक प्रेम के कारण कवियों ने उसे बीझड कहकर भी संबोधित किया है।

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